प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र ‘नियाज‘ के काव्य में बिम्ब विधान
डा. (श्रीमती) अर्चना श्रीवास्तव
सहायक प्राध्यापक, हिन्दी, पं. हरिशंकर शुक्ल स्मृति महाविद्यालय, कचना, रायपुर (छ.ग.)
’ब्वततमेचवदकपदह ।नजीवत म्.उंपसरू ंतबींदंेीतपअंेजंअं402/हउंपसण्बवउ
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भारतीय काव्य शास्त्र की परंपरा में ’बिम्ब‘ शब्द अपेक्षाकृत नया है। पुराने लक्षण ग्रंथों में इस शब्द का उल्लेख कहीं नही मिलता। केवल दृष्टांत अलंकार की चर्चा में बिंम्ब-प्रतिबिम्ब भाव का उल्लेख मिलता है जिसका आधुनिक कविता के बिम्ब से कोई सम्बंध नही। वस्तुतः हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में ’बिम्ब‘ शब्द के प्रथम प्रयोक्ता और व्याख्याता आर्चाय रामचन्द्र शुक्ल ही है।
ज्ञम्ल्ॅव्त्क्ैरू प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र ‘नियाज‘ के काव्य में बिम्ब विधान
प्रस्तावना
भारतीय काव्य शास्त्र की परंपरा में ’बिम्ब‘ शब्द अपेक्षाकृत नया है। पुराने लक्षण ग्रंथों में इस शब्द का उल्लेख कहीं नही मिलता। केवल दृष्टांत अलंकार की चर्चा में बिंम्ब-प्रतिबिम्ब भाव का उल्लेख मिलता है जिसका आधुनिक कविता के बिम्ब से कोई सम्बंध नही। वस्तुतः हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में ’बिम्ब‘ शब्द के प्रथम प्रयोक्ता और व्याख्याता आर्चाय रामचन्द्र शुक्ल ही है। उन्होंने सर्वप्रथम काव्यगत अमूर्तता का विरोध किया और बिम्ब निर्माण की क्रिया को कवि का मुख्य उद्धेष्य बताया - ’’काव्य का काम है कल्पना में बिम्ब अथवा मूर्त भावना उपस्थित करना, बुद्धि के सामने कोई विचार लाना नही।’’ 1
सामान्यतः बिम्ब को छाया, प्रतिच्छाया, अनुकृति अथवा शब्दों के द्वारा भावांकन कहा जाता है। ‘न्यू इंग्लिष डिक्षनरी’ में बिम्ब को किसी वस्तु की छाया, अनुकृति अथवा समानता माना गया है। विष्व कोष में भी बिम्ब को ’प्रतिच्छाया‘ ही स्वीकारा गया है। किसी वस्तु और व्यक्ति का प्रतिबिम्ब बिम्ब ही है तथा साहित्य और अन्य कलाओं में इसका अर्थ सजीव या निर्जीव वस्तु की प्रतिच्छाया माना गया है।
बिम्ब विधान से हमारा तात्र्पय काव्य में आये हुए उन शब्द चित्रों से है, जो भावात्मक होते है, जिनका सम्बंध जीवन के व्यावहारिक क्षेत्रांे से तथा कल्पना के शाष्वत् जगत से होता है, जो कवि की सजीव अनुभूति, तीव्र भावना एवं उत्कट वासना से परिपूर्ण होते है और गत्यात्मकता, सजीवता, सुन्दरता एवं सरसता के कारण जीते-जागते, चलते-फिरते और बातचीत करते से जान पड़ते है। श्री सी.डे. लेविस ने बिम्ब को दर्पण में पड़ी हुई उस छाया के समान माना है ’’जिसमें कवि अपनी आकृति को ही नही देखता, अपितु उससे भी परे सत्य का साक्षात्कार किया करता है।’’ 2
ये काव्यगत बिम्ब विविध प्रकार के होते है। इन बिम्बों की प्रकृति तथा इनकी प्रक्रिया के आधार पर सर्वप्रथम इन्हे दो भागों में बांटा जा सकता है -
1. प्रकृति के आधार पर बिम्ब।
2. प्रक्रिया के आधार पर बिम्ब।
इसके अतिरिक्त ’’डाॅ. एन.पी. कुट्टन पिलैने स्वियार्ड हेर्टर फोगल, राॅबिन स्केल्टन, कारमोड, डाॅ. गोविंद त्रिगुणायत, डाॅ. भागीरथ प्रसाद मिश्र, डाॅ. नगेन्द्र आदि विद्वानों द्वारा किए हुए बिम्बों के वर्गीकरण पर गहनता के साथ विचार करते हुए बिम्ब को चार प्रमुख वर्गाे में विभाजित किया है - 1. ऐन्द्रिय बिम्ब, 2. वस्तुपरक बिम्ब, 3. भाव बिम्ब और 4. दार्षनिक बिम्ब।’’3
इनमें से यदि दार्षनिक बिम्ब-को ’आध्यात्मिक बिम्ब’ कहें तो अधिक समीचीन होगा। अब उक्त चार बिम्बों के आधार पर हम मिश्र जी के बिम्ब विधान पर दृष्टिपात करेंगे।
1. ऐन्द्रिय बिम्ब - जहाॅ ऐन्द्रिय बोध के आधार पर बिम्बों की योजना की जाती है, वहाॅ ऐन्द्रिय बिम्ब विधान होता है। ऐन्द्रिय बिम्ब प्रमुख पाॅच ज्ञानेन्द्रियों - चक्षु, श्रवन, त्वक (त्वचा), घ्राण और रसना के आधार पर पाॅच प्रकार के होते है - चाक्षुष, श्रव्य, स्पृष्य, घ्रातव्य और आस्वाद्य। इनमें से चाक्षुष बिम्ब दो प्रकार के होते है - स्थिर और गत्यात्मक। मिश्र जी के काव्य में सभी ऐन्द्रिय बिम्बों का विधान अत्यन्त सुन्दरता एवं रमणीयता के साथ हुआ है -
(क) चाक्षुष बिम्ब - नेत्रोन्द्रिय द्वारा ग्राहय तथा सौन्दर्य को प्रतिबिम्बित करने वाले काव्य बिम्बों को चाक्षुष कोटि में रखा जाता है। ये स्थिर एवं गत्यात्मक दो प्रकार के होते है।
;पद्ध स्थिर बिम्ब -
प्रेम तरू के मृदु दलों से झांकती है कौन छाया घ्
देख सखि ! बढ़कर झरोखो से भला यह कौन आया घ् 4
प्रस्तुत उदाहरण में प्रिय के प्रत्यक्ष दिखने का चित्र प्रस्तुत हुआ है।
;पपद्ध गत्यात्मक बिम्ब -
’’बलखाती, हॅसती, इठलाती।
लहरंे तट चुम्बन को आती।
लज्जित सविता की रष्मि देख,
अनुरंजित करती आर-पार।
भरने दे मुझको एक बार।
जीवन घट, बहती प्रेम धार।
क्रीड़ा करने दो सांध्य दीप,
अल्हड़ लहरों से एक बार।।’’5
उपर्युक्त उदाहरण मंे लहरों की अठखेलियाॅं उनका तट तक पहुॅचना और त्वरित लौटना, तट को चुम्बन करके लौटना, रवि रष्मियों की लालिमा का बिखरना, लज्जा की लाली का चलित चित्र प्रस्तुत हुआ है - सब कुछ आॅखों के आगे घटित होता प्रतीत होता है।
(ख) श्रव्य बिम्ब - प्रेषणीयता से पूर्व कवि द्वारा प्रयुक्त शब्दों की अर्थवत्ता अभिव्यंजना के रूप में आने पर श्रवणेन्द्रिय द्वारा भी ग्राहय होती है। ऐसे बिम्ब पहले नाद द्वारा गाह्य होते है पुनः मनसा ग्राहय होकर कवि की संवेदना की गहराई तक पाठक को पहुॅचा देते है।
उदाहरण-
’’पग धरने से यदि चरमर हो,
निकल रहा करूणा का स्वर हो,
उन सूखे पत्तों को अपने -
कर से सहलाना।।
अहेरी धीरे से आना।
यह है सूनी कुटी यहाॅ पर,
मत तुम शोर मचाना।।‘‘6
उपर्युक्त उदाहरण में सूखे पत्तों पर पग धरने से होने वाली चरमर ध्वनि को कवि ने श्रव्य बिम्ब के रूप में प्रस्तुत किया है। सुनसान जगह पर पत्तों की चरमर ध्वनि भी शोर का अहसास कराती है इसकी प्रतीति इस श्रव्य बिम्ब के माध्यम से कराई गई है।
(ग) स्पृष्य बिम्ब -
‘‘शब्द बिम्ब बनाते हांे, संकेत देते हों, व्यंजनायें बरतते हो, अमूर्तन मे घेरते हांे, कुछ या बहुत कुछ करते हों, उनका प्रयोग हम पर निर्भर करता है। एक शव्द में पूरी संस्कृति का अर्थ समेटा जा सकता है। संवेदन और विचार शब्द को लय और छन्दता देते है। शब्द केवल अर्थ-गर्भ नही होते, अर्थातीत भी होते है।’’7
इन्हीं शब्दों के माध्यम से अनुभूतियों बिम्ब-विधान का रूप लेती है। यथा आलिंगन, चुम्बन, छुअन सिहरन, कॅंपकॅपी, पुलकन आदि से स्पर्ष की अभिव्यंजना होती है।
उदाहरण -
’’मधुकर ! कैसा तेरा गुंजन।
पर फैलाकर कली कली से।
करता आलिंगन।
मधुकर ! कैसा तेरा गंुजन।।
ऊषा लिए सिंदूरी - गागर,
ढलकाती जाती अंबर पर,
लज्जित धरा लाल हो उठती,
पाकर प्रिय का चुम्बन।
मधुकर ! कैसा तेरा गुंजन।।’’8
उपर्युक्त उदाहरण पर फैलाकर कली-कली पर मंडराते भौरे का गुंजन कलियों का आलिंगन करने का बिम्ब प्रस्तुत करता है। प्रातः काल अरूणोदय के समय प्रकृति, सिंदूरी आभामय हो जाती है जिसे कवि ने ऊषा सुन्दरी के प्रिय के चुम्बन से लज्जावष लाल होते सौन्दर्य का बिम्ब प्रस्तुत किया है।
(घ) घ्रातव्य बिम्ब -
मधुर पान आदि शब्द आस्वाद के परिचायक है, किन्तु मात्र शब्दों के प्रयोग ही बिम्ब विधान के लिए पर्याप्त नही है। ऐसे प्रयोग जिनमें वास्तविक रूप में बिम्बों द्वारा कवि और पाठक के बीच प्रेषणीयता का सम्बंध स्थापित होेता है वही सफल बिम्ब है। मिश्र जी की काव्य पंक्तियों में रसना, जिहृा अथवा स्वाद से सम्बंधित सरस बिम्बांे की चित्रात्मकता देखी जा सकती है। जैसे -
श्अलसाये नयनों से पीते,
वह रूप सुधा सब दिन बीते।
उस धूमिल झुरगुट के पीछे,
मैनंे पाया प्रिय का दुलार।श्9
श्आज सुनयने! रूप तुम्हारा,
पीकर नही अंघाऊॅ
सजल लोचनांे में छवि तेरी,
में कैसे लख पाऊॅ घ्श्10
उपर्युक्त उदाहरणों में नयनों के प्यालों से प्रिय के सौन्दर्य सुधा का रसपान करने का बिम्ब अत्यंत सुन्दरता एवं गरिमा के साथ प्रस्तुत हुआ है।
2.
3. वस्तुपरक बिम्ब -
4. प्रायः वस्तुपरक बिम्ब दो प्रकार के होते है - मानव सम्बंधी बिम्ब और प्रकृति सम्बंधी बिम्ब। मानव सम्बंधी बिम्ब की रचना करने के लिए कवि रूप सौन्दर्य, समाज, इतिहास, पुराण, राजनीति, संस्कृति आदि विविध क्षेत्रों से सामग्री संकलित करता है और प्रकृति सम्बंधी बिम्बों की रचना करने के लिए जड़ और चेतन प्रकृति से सामग्री का संचयन करता है। मिश्र जी ने अपने काव्य में वस्तुपरक बिम्बों की प्रस्तुति इस प्रकार की है -
;पद्ध मानव सम्बंधी बिम्ब -
श्कंजमुख पर दो भृकुटियों
बीच छोटा बिन्दु है जो।
नव ऊषा की लालिमा में,
पूर्णिमा का इन्दु है वो।
तुम बताओं, मैं उसे
या मंजु शतदल को निहारूॅ घ्श्11
उपर्युक्त उदाहरण में प्रिय के सुन्दर माथे पर सिन्दूरी बिंदी को पूणर््िामा के चन्द्रमा की तरह जा नवऊषा की लालिमा में अपना अद्वितीय सौन्र्दय बिखेरते हुए सबको आकर्षित करता है, जैसे प्रिय के सुन्दर मुख का बिम्ब प्रस्तुत है, जिसके सम्मुख सैकड़ों कमलदल की शोभा भी फीकी है।
श्सद्यस्नाता शुभ्रवसना चली मंदिर ओर,
ध्यान, पूजंन देव का कर हुई आत्म विभोर,
कौन जाने इष्ट से वह मांगती क्या वर घ्
गीत बनकर गूॅजता है वंदना का स्वर।श्12
उपर्युक्त उदाहरणों में क्रमषः रूप सौन्र्दय बिम्ब पौराणिक एवं सांस्कृतिक बिम्बों का निर्माण करके कविवर मिश्र जी ने मानव सम्बंधी बिम्बों की रचना अति कोमलता एवं रमणीयता के साथ की है।
;पपद्ध प्रकृति सम्बंधी बिम्ब - प्रकृति सम्बंधी बिम्ब के माध्यम से प्रकृति के उपादानों का सुन्दर समन्वय हुआ है। लहरों की थिरकन, चपला की चमकन, वारिद की गर्जन और पपीहे की पीऊ-पीऊ ने काव्य के सौन्दर्य को द्विगुणित कर दिया है।
श्ओ लहरी मत थिरक थिरक तू।
तेरी प्रति पद ध्वनि पर आश्रित लघु हृदयों का मेल,
देख रहा है उत्सुकता से जीवन का यह खेल,
ओ चपले मत चमक चमक तू।
नीलगगन घन से आच्छादित, रिमझिम बरसे मेह,
विद्युत नव प्रकाष फैलाये, आलोकित हो गेह,
ओ वारिद मत गरज गरज तू।
तेरी गर्जन भरे ह्दय में दुःख का यह आभास
बोल पपीहा पीऊ पीऊ तू, तुझ तक मेरी आस
ओ मानव मत बिलख-बिलख तू।श्13
5. भाव बिम्ब - ’’बिम्ब कितना ही नया या बोधक हो और उसका निर्माण प्रकृत वस्तु की कितनी भी प्रामाणिक अनुकृति से हुआ हो तथा शब्दों में वह कितनी भी सावधानी से मूर्त किया गया हो, वह मौलिक प्रतिभा का प्रमाण तब तक नहीं बन सकता जब तक कविता में व्याप्त किसी प्रमुख भाव से अनुप्राणित नही हो। भावहीन बिम्ब को सूखे वस्तु चित्र से अधिक नही माना जा सकता।‘‘14
अतः जहाॅ कवि विभिन्न प्रकार के भावों को आधार बनाकर बिम्बों की रचना करता है, वहाॅ भाव बिम्ब होते है।
मिश्र जी के काव्य में भाव बिम्बों का चित्रण इस प्रकार हुआ है -
श्सीप-सम खुलते दृगों में,
स्वाति-सम वे जा समाते,
सीप का मुख बंद होता,
वे व्यथा मन की सुनाते;
साधनारत लोचनों का
मौन, यह आलाप होता,
मै तुम्हारे पास होता,
तुम ह्दय के पास होती
ह्दय में उल्लास होता।श्15
प्रिय के मिलन का भावपूर्ण बिम्ब चित्रण हुआ है। सीप-सम खुले दृगांे में स्वाति-सम का समा जाना, बन्द नयनों में मौन आलाप के साथ अपनी व्यथा की कथा का कहना, सामीव्य एवं सानिध्य के उल्लास का अव्यक्त अहसास इस भाव बिम्ब में मुखरित हुआ है -
प्रेम - श्तुम हरसिंगार का प्यार तनिक झरने दो,
सखि ! रूको, नैन की झोली तो भरने दो।श्16
तृष्णा - श्वर्षा की छुटपुट बॅूदांे ने,
तुमको फिर से उकसाया है,
नभ में काले मेघ देखकर
तू मयूर सा भरमाया है,
पागल ! ये सब उड़ जाएगे,
यह सब है धोखे का सावन।श्17
कामना - श्निषा गई चाॅदनी मलिन है,
कुछ हलचल कुछ मंद पुलिन है,
सोयी कलियों का चुपके से
सरकाता अवगुण्ठन।
मधकुर ! कैसा तेरा गंुजन?श्18
लोभ - श्क्या लता द्रुम, क्या भ्रमर, क्या नर, सभी उद्भ्रान्त।
हो रहे है लालसाओं से सभी आक्रांत।श्19
प्रेम, तृष्णा, कामना, लोभ आदि मानव स्वभाव के शुद्ध भाव है। इन्हे बिम्बों के रूप में प्रस्तुत किया गया है। हरसिंगार के फूलों की निर्झरता प्रेम की सहजता एवं सरलता की प्रतीक है जिसका सौन्र्दय नयनों के निरख कर आत्मिक तृप्ति पाने की प्रतीति कराता है। वर्षा की बंूदो से तृष्णा की तृप्ति एवं सोयी कलियों पर भ्रमर का गुंजन कामना प्रसूति का बिम्ब प्रस्तुत करता है। समस्त प्रकृति लता, द्रुम, भ्रमर सहित नर-नारी भी लालसाओं एवं कामनाओं में आसक्त हैं - कवि ने उपर्युक्त बिम्बों में इसकी सहज सृष्टि की है।
6. दार्शनिक (आध्यात्मिक) बिम्ब - जहाॅ कवि ब्रह्म, जीव, जगत, जन्म मरण, माया, काल, निर्यात, दिक्चेतना आदि को आधार बनाकर काव्यात्मक बिम्बों की रचना करता है, वहाॅ आध्यात्मिक बिम्ब होते है। मिश्र के काव्य में ऐसे ही आध्यात्मिक बिम्ब दृष्टिगोचर होते है। यथा -
ब्रहा - ‘‘आज बेला आ गई,?
उड़ चलो उस पार पंछी।
देर होते ही अहेरी,
छीन ले अधिकार पंछी।।’’20
जीव - ‘‘स्वर्ण-संकेतों के अधीन,
उजड़ते कितने ही संसार,
मधुर मुस्कानों में लवलीन,
रहा करता है विषमय प्यार,
किंतु तृष्णा से आकुल जीव
समझता उसको सुख का स्त्रोत।।‘‘21
जन्म मरण- ‘‘जीवन के झुरगुट में, दो आषा सुमन खिले थे।
सौरभमय मलयानिल से आपस में हिले मिले थे।।
जब नीरव संध्या आयी, उजड़ा जीवन का मध्ुाबन।
उन मुरझाये फूलों पर यह कहकर होती शबनम।।
इस रूप सुधा के पीछे दुनिया फिरती दीवानी।
जो इस पर मर मिटता है, है उसकी अमर कहानी।।’’ 22
जगत् -
’’वाणी के कम्पन में विलीन
होती करूणा की रागिनियांॅ,
जिससे झंकृत होती सहसा,
बंदी के कर की हथकड़ियाॅ।
बंधन में है संदेष मुक्ंित -
का यह बतलाने आए है।।‘‘23
माया -
‘‘मोह का बंधन प्रबल है,
प्रेम की माया, जटिल है।
जो फंसा इसमें न निकलेगा,
ये गहृर का सलिल है।
रोग यह चिरकाल से,
इसका न कुछ उपचार पंछी।।’’24
निर्यात - ’
’युग कहता है जहाॅ हिमालय, कभी सिंधु लहराया,
कहता है इतिहास प्रकृति में, सत्य गया दुहराया।
नभ के रवि-षषि सभी कह रहे केवल परिवर्तन है,
मत भूलो इस परिवर्तन में छिपा मृत्यु दर्षन है,
जो भूला यह सत्य, सृष्टि यह उसे भुला ही देगी।।’’25
बिम्ब विधान करते हुए मिश्र जी ने विविध प्रकार के खंडित एवं अखंडित तथा अष्लिष्ट एवं संष्लिष्ट बिम्बों का निर्माण करके अपनी भावाभिव्यक्ति का अत्यंत सुन्दर एवं सजीव बनाया है। इन बिम्बों में स्थूलता भी है और सूक्ष्मता भी है, यथार्थता भी है और काल्पनिकता भी है, पूर्णता भी है और अपूर्णता भी है, मनोवैज्ञानिकता भी है और वैज्ञानिकता भी है तथा चेतनता भी है और अचेतनता भी है। ये सभी बिम्ब विविध भावों, विचारों एवं अनुभूतियों की अभिव्यक्ति में सफल सिध्द हुए है और इनके द्वारा कवि ने अपनी कोमल कल्पना, उर्वर उद्भावना एवं सहज अनुभूति को रूपायित करके अपने काव्य को चित्रोपमता प्रदान की है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची -
01. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल - रस मीमांसा पृष्ठ 310
02. सी.डे. लेविस - ब्ण्क्ंल स्ंअपे दृ ज्ीम च्वमजपब प्उंहम च्ंहम 27
03. डाॅ द्वारिका प्रसाद सक्सेना - हिन्दी के आधुनिक प्रतिनिधि कवि पृष्ठ 303
04. प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र ’नियाज’ - हिन्दी साहित्य परिषद, अहमदाबाद, गुजरात - तंरगिणी, प्रथम संस्करण। पृष्ठ 13
05. प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र ’नियाज’ हिन्दी साहित्य परिषद, अहमदाबाद, गुजरात - तंरगिणी पृष्ठ 18
06. प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र ’नियाज’ हिन्दी साहित्य परिषद, अहमदाबाद, गुजरात - तंरगिणी पृष्ठ 47
07. श्री राम वर्मा चैथा सप्तक (वक्तव्य) - 1979 पृष्ठ 224
08. प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र ’नियाज’ हिन्दी साहित्य परिषद, अहमदाबाद, गुजरात - अजस्त्रा, प्रथम संस्करण -1999। पृष्ठ 47
09. प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र ’नियाज’ - हिन्दी साहित्य परिषद, अहमदाबाद, गुजरात, तरंगिणी - प्रथम संस्करण - 1997। पृष्ठ 18
10. प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र ’नियाज’ - हिन्दी साहित्य परिषद, अहमदाबाद, गुजरात - तरंगिणी, प्रथम संस्करण - 1997। पृष्ठ 53
11. प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र नियाज, - हिन्दी साहित्य परिषद, अहमदाबाद, गुजरात - तरंगिणी, प्रथम संस्करण - 1997। पृष्ठ 46
12. प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र ’नियाज’ - हिन्दी साहित्य परिषद, अहमदाबाद, गुजरात - अजस्त्रा, प्रथम संस्करण - 1999। पृष्ठ 44
13. प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र ’नियाज’ - हिन्दी साहित्य परिषद, अहमदाबाद, गुजरात - तरंगिणी, प्रथम संस्करण - 1997। पृष्ठ 26
14. डाॅ. नागेष्वर लाल आधुनिक हिन्दी कविता में बिम्ब विधान पुस्तकम नारायण मार्केट पटना, संस्करण - 1979। पृष्ठ 29
15. प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र ’नियाज’ - हिन्दी साहित्य परिषद, अहमदाबाद, गुजरात - तरंगिणी, प्रथम संस्करण - 1997। पृष्ठ 34
16. प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र ’नियाज’ - हिन्दी साहित्य परिषद, अहमदाबाद, गुजरात - अजस्त्रा, प्रथम संस्करण - 1999। पृष्ठ 50
17. प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र ’नियाज’ - हिन्दी साहित्य परिषद, अहमदाबाद, गुजरात - अजस्त्रा, प्रथम संस्करण - 1999। पृष्ठ 48
18. प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र ’नियाज’ - हिन्दी साहित्य परिषद, अहमदाबाद, गुजरात - अजस्त्रा, प्रथम संस्करण - 1999। पृष्ठ 47
19. प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र ’नियाज’ - हिन्दी साहित्य परिषद, अहमदाबाद, गुजरात - गीतरष्मि, द्वितीय संस्करण - 1998। पृष्ठ 128
20. प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र ’नियाज’ - हिन्दी साहित्य परिषद, अहमदाबाद, गुजरात - तरंगिणी, प्रथम संस्करण - 1997। पृष्ठ 76
21. प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र ’नियाज’ - तरंगिणी, हिन्दी साहित्य परिषद, अहमदाबाद, गुजरात प्रथम संस्करण - 1997। पृष्ठ 39
22. प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र ’नियाज’ - हिन्दी साहित्य परिषद, अहमदाबाद, गुजरात - तरंगिणी, प्रथम संस्करण - 1997। पृष्ठ 17
23. प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र ’नियाज’ - तरंगिणी, हिन्दी साहित्य परिषद, अहमदाबाद, गुजरात प्रथम संस्करण - 1997। पृष्ठ 99
24. प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र ’नियाज’ - हिन्दी साहित्य परिषद, अहमदाबाद, गुजरात - तरंगिणी, प्रथम संस्करण - 1997। पृष्ठ 78
25. प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र ’नियाज’ - हिन्दी साहित्य परिषद, अहमदाबाद, गुजरात - तरंगिणी, प्रथम संस्करण - 1997। पृष्ठ 111
Received on 11.05.2017 Modified on 19.05.2017
Accepted on 26.06.2017 © A&V Publication all right reserved
Int. J. Rev. and Res. Social Sci. 2017; 5(2): 103-108 .